
चुनाव आयोग की चालाकी पर सुप्रीम कोर्ट की चोट
कल सुप्रीम कोर्ट ने वह किया, जिसकी उम्मीद जनता लंबे समय से कर रही थी। बिहार की मतदाता सूची में कटे 64 लाख नामों का मामला सिर्फ तकनीकी खामी नहीं था, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद को हिलाने की सोची-समझी कोशिश थी। चुनाव आयोग ने “रिकमेंड” और “नॉट रिकमेंड” की श्रेणियाँ बनाकर लगभग हर विधानसभा में 10–12% वोट हटाने का खेल रचा था। यह वही “चालाकी” थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कल पानी फेर दिया।
अब स्पष्ट है—
👉 7.24 करोड़ मतदाता ड्राफ्ट सूची में एक बार शामिल हो गए तो उन्हें किसी भी बहाने से हटाया नहीं जा सकता।
👉 जिन 64 लाख मतदाताओं के नाम काटे गए, उनके लिए सिर्फ आधार कार्ड ही पर्याप्त होगा। नागरिकता या अतिरिक्त दस्तावेज की बाध्यता अब खत्म।
यह आदेश सीधे-सीधे चुनाव आयोग की “हटाओ रणनीति” को “जोड़ो रणनीति” में बदल देता है। यानी अब आयोग को हटाने से ज्यादा जोड़ने पर ध्यान देना होगा।
# लोकतंत्र का असली सरंक्षक कौन?
यह सवाल कल के आदेश के बाद और बड़ा हो गया है। लोकतंत्र में चुनाव आयोग सबसे निष्पक्ष संस्था मानी जाती है। लेकिन जब वही संस्था “नाम काटने” में व्यस्त दिखे और विपक्ष को “मतदाता सूची से छेड़छाड़” की आशंका हो, तो फिर लोकतंत्र की रक्षा का भार किस पर है? जवाब है—सुप्रीम कोर्ट।
कल कोर्ट ने सिर्फ तकनीकी सुधार नहीं किया, बल्कि यह स्पष्ट संदेश दिया कि— “लोकतंत्र का भविष्य चुनाव आयोग के दफ्तरों में नहीं, बल्कि अदालत की चौखट पर सुरक्षित है।”
# राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी
सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ भी नया मोड़ दिया। सिर्फ आयोग ही नहीं, बल्कि सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को जिम्मेदार बनाया कि वे भी कटे हुए नाम जोड़वाने में सक्रिय हों और अपने प्रयासों की रिपोर्ट कोर्ट में दें। यानी अब बहानेबाज़ी नहीं चलेगी।
# मीडिया कहाँ खड़ा है?
सबसे शर्मनाक भूमिका यहाँ मीडिया की रही।
👉 चुनाव आयोग की इस “मतदाता कटौती एक्सरसाइज” पर मीडिया का रवैया चुप्पी और चुगली वाला रहा।
👉 जो टीवी चैनल दिन-रात “एग्ज़िट पोल” और “सेमीफाइनल” की चिल्लाहट करते हैं, वे इस लोकतांत्रिक संकट पर मौन साधे बैठे रहे।
👉 बहस के नाम पर सिर्फ “वोट बैंक” और “घुसपैठ” की चाशनी घोली गई, जबकि असली घोटाला आँखों के सामने होता रहा।
दरअसल, मीडिया की भूमिका यहाँ “लोकतंत्र का चौथा स्तंभ” नहीं, बल्कि “सत्ता का विज्ञापन बोर्ड” बन जाने की रही।
कल सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि—
* लोकतंत्र में “नाम काटने” की नहीं, बल्कि “नाम जोड़ने” की राजनीति चलेगी।
* चुनाव आयोग अगर बहाना बनाएगा तो अदालत रास्ता दिखाएगी।
* मीडिया चाहे जितनी चुप्पी साधे, जनता अब सब देख रही है।
अब सवाल यह है—
👉 क्या चुनाव आयोग जनता का विश्वास फिर से जीत पाएगा?
👉 और क्या मीडिया कभी जनता की ओर खड़ा होगा, या फिर सत्ताधारी दलों के इशारों पर ही लोकतंत्र की बिसात सजाता रहेगा?
लोकतंत्र की लड़ाई अब अदालतों और जनता के बीच है—मीडिया और आयोग तो कहीं बीच रास्ते ही छोड़ चुके हैं।