शिक्षा में कला और सांस्कृतिक गतिविधियां: समग्र विकास का मूल आधार: राजकुमार पीजीटी फाइन आर्ट
अखंड भारत न्यूज़ गुरुग्राम हरियाणा संवाददाता कर्ण सिंह लखेरा आज के प्रतिस्पर्धात्मक शैक्षिक युग में यह आवश्यक हो गया है कि विद्यार्थियों का विकास केवल किताबी ज्ञान तक सीमित न रहे, बल्कि उनका संपूर्ण व्यक्तित्व विकसित हो। इस दिशा में कला और सांस्कृतिक गतिविधियाँ अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अक्सर यह समझा जाता है कि कला केवल मनोरंजन का माध्यम है, लेकिन वास्तव में कला आत्म-अभिव्यक्ति, मानसिक संतुलन, और रचनात्मक सोच को विकसित करने का एक सशक्त माध्यम है। इससे बच्चों में कल्पनाशक्ति, संवेदनशीलता, आत्मविश्वास और सामूहिक सहयोग की भावना विकसित होती है। भारत में कला का संबंध केवल आधुनिक शिक्षा से नहीं, बल्कि हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। अजंता और एलोरा की गुफाओं की भित्ति चित्रकला, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की मूर्तिकला और वास्तुशिल्प—यह सभी दर्शाते हैं कि कला हमारी ऐतिहासिक धरोहर का अमूल्य भाग रही है। इतना ही नहीं, मनुष्य ही नहीं, बल्कि देवताओं की मूर्तियों, मंदिरों की कलाकृतियों और धार्मिक ग्रंथों में भी कला का अद्वितीय स्थान रहा है। यह स्पष्ट करता है कि कला न केवल भौतिक सुंदरता का माध्यम रही है, बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का भी साधन रही है। वर्तमान सरकार द्वारा भी कला और संस्कृति को शिक्षा के एक अनिवार्य अंग के रूप में बढ़ावा देने के लिए ठोस प्रयास किए जा रहे हैं। विद्यालयों में सांस्कृतिक शिविर, कला प्रदर्शनियाँ, संगीत-नृत्य कार्यक्रम और रंगमंच जैसी गतिविधियों को प्रोत्साहन मिल रहा है। यह प्रसन्नता की बात है कि आज अनेक विद्यालयों में कला, संगीत, नृत्य और नाट्यकला को शैक्षणिक गतिविधियों का हिस्सा बनाया गया है। शिक्षकगण भी विद्यार्थियों को इन क्षेत्रों में रुचि लेने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इससे शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा उतीर्ण कराना नहीं, बल्कि विद्यार्थियों को एक जिम्मेदार, रचनात्मक और सजीव नागरिक बनाना हो गया है। कला का प्रभाव अन्य विषयों में भी प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। इतिहास में घटनाओं को दृश्य रूप में प्रस्तुत करना, गणित में ज्यामितीय आकृतियों के माध्यम से रचनात्मकता विकसित करना, या विज्ञान में प्रोजेक्ट मॉडल्स बनाना — इन सबमें कला का योगदान महत्वपूर्ण है। अभिभावकों की भूमिका भी इस बदलाव में अहम रही है। वे अब बच्चों को केवल अंक लाने के लिए नहीं, बल्कि उनके छिपे हुए रचनात्मक पक्ष को उभारने के लिए भी प्रेरित कर रहे हैं। इससे बच्चों का मानसिक विकास संतुलित होता है और वे तनावमुक्त रहकर अपने जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करते हैं। निष्कर्षतः, शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य तभी पूर्ण होता है जब उसमें कला और संस्कृति को स्थान दिया जाए। ये केवल अभिव्यक्ति के साधन नहीं हैं, बल्कि ये चरित्र निर्माण, भावनात्मक बौद्धिक विकास, और राष्ट्र निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हैं। विद्यालयों, सरकार और अभिभावकों के सामूहिक प्रयासों से हम निश्चित ही एक रचनात्मक और सशक्त पीढ़ी का निर्माण कर सकते हैं।