
रेल की पटरी पर सत्ता के झूठ – और मीडिया की चुप्पी
भारतीय रेलवे दुनिया का चौथा सबसे बड़ा रेल नेटवर्क है। प्रतिदिन यह लगभग 22,593 ट्रेनों का संचालन करता है, जिनमें करीब 13,452 यात्री गाड़ियाँ होती हैं। यह आँकड़ा आधिकारिक है, मार्च 2024 तक का। लेकिन जब राजनीति अपने रंग में होती है तो यही आँकड़े चमत्कारिक उपलब्धियों में बदल जाते हैं।
सत्ता के गलियारों से यह दावा गूँज रहा है कि बिहार के लिए त्योहारों पर 12,000 स्पेशल ट्रेनें चलाई जाएंगी। ज़रा सोचिए — जब पूरे देश की कुल यात्री ट्रेनों की संख्या 13,452 है, तो अकेले बिहार के लिए 12,000 अतिरिक्त ट्रेनें कहाँ से निकल आईं? पटरी से, हवा से या सत्ता की भाषा से?
असलियत यह है कि रेल मंत्रालय एक ट्रेन को कई बार चलाकर “12,000 ट्रिप्स” को “12,000 ट्रेनें” बताता है। लेकिन मीडिया इस गणितीय चाल को पकड़ने की बजाय सत्ता के दावों को उसी भाषा में हूबहू दोहरा देता है। मानो उसका काम सवाल पूछना नहीं, बल्कि सरकारी प्रेस नोट का उद्घोष करना हो।
# मीडिया की भूमिका पर सवाल
आज मीडिया जनता के लिए फैक्ट-चेकिंग का प्रहरी नहीं, बल्कि सत्ता की उपलब्धियों का बाजा बजाने वाला बन चुका है। बिहार जैसे चुनावी राज्य में आँकड़ों को तोड़-मरोड़ कर “रेलवे की ऐतिहासिक सेवा” का चित्र खींचा जाता है और चैनलों की हेडलाइन बनती है—
“त्योहार पर बिहार के लिए 12 हज़ार स्पेशल ट्रेनें”।
लेकिन न एक एंकर पूछता है कि इतने डिब्बे आएंगे कहाँ से, न एक संपादक यह छानबीन करता है कि कुल गाड़ियाँ कितनी हैं और दावा कितना। पत्रकारिता का धर्म है सत्ता को कठघरे में खड़ा करना, पर यहाँ उल्टा हो रहा है — सत्ता के झूठ को फ्रेम कर जनता के सामने परोसा जा रहा है।
यह सिर्फ़ रेल का मुद्दा नहीं है, यह उस मीडिया की विश्वसनीयता का प्रश्न है जो आँकड़ों की धज्जियाँ उड़ते देख कर भी चुप है। जब चौथा खंभा ही सत्ता के बोझ से दब जाए, तो जनता के पास बचता क्या है?
सवाल साफ है —
👉 सत्ता झूठ बोल रही है, लेकिन मीडिया क्यों उसका मुखपत्र बना हुआ है?
👉 क्यों नहीं जनता को बताया जाता कि बिहार के लिए 12,000 ट्रेनें चलाना तकनीकी रूप से नामुमकिन है?
सच्चाई यही है कि ट्रेन की पटरी पर चल रहा यह खेल सिर्फ़ जनता को भ्रमित करने की रणनीति है। सत्ता गुमराह करती है, और मीडिया गुमराहगी को सुर्ख़ियों में बदल देता है।