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मीडिया की निष्पक्षता या एक पक्षीय रिपोर्टिंग का छिपा सच

मीडिया की निष्पक्षता या एक पक्षीयता—रिपोर्टिंग का छिपा सच

भारत में पत्रकारिता का इतिहास अनगिनत संघर्षों और उतार-चढ़ाव से भरा रहा है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रेस ने जनता को जागरूक किया, सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए और समाज में व्याप्त असमानताओं के खिलाफ आवाज़ उठाई। लेकिन आज मीडिया के परिप्रेक्ष्य में यह सवाल उठता है कि क्या पत्रकारिता वही आदर्श भूमिका निभा रही है या फिर यह सत्ता और सरकार के प्रभाव में आकर खुद को खो चुकी है?

हाल ही में अखबारों में कुछ घटनाओं को लेकर छपी रिपोर्टों ने इस बहस को और ज़्यादा हवा दी है। बैंगलोर में आईपीएल के मैच के दौरान भगदड़ में हुई मौतों पर मीडिया का दृष्टिकोण, प्रधानमंत्री द्वारा ‘सिंदूर का पौधा’ लगाए जाने की कवरेज, और सरकारी प्रचार को खबर का रूप देना—यह सब ऐसी घटनाएँ हैं जिनसे यह साफ होता है कि आज मीडिया में निष्पक्षता की कमी है और राजनीतिक दबाव ने उसे अपने पंख समेटने पर मजबूर कर दिया है।

* प्रचारात्मक समाचारों की प्रमुखता:

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इसमें कोई शक नहीं कि खबरें राजनीति और सरकार की छवि को चमकाने के लिए एक बड़ा हथियार बन चुकी हैं। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा वंदे भारत ट्रेन का उद्घाटन या फिर राफेल विमान के भारत में निर्माण की खबरें प्रमुखता से प्रकाशित की जाती हैं। अखबारों में इन खबरों की चर्चाएँ, उन्हें ‘उद्घाटन’ या ‘इतिहास रचने’ के रूप में प्रस्तुत करना, क्या सिर्फ सरकारी प्रचार का हिस्सा नहीं है? क्या पत्रकारिता का कर्तव्य यह नहीं है कि वह सिर्फ तथ्यों पर आधारित, निष्पक्ष और प्रमाणिक रिपोर्टिंग करें, न कि सरकार के प्रचार को प्रमुख खबर बना दें?

* बैंगलोर हादसा:

बैंगलोर में हुए आईपीएल मैच के बाद भगदड़ की घटना ने मीडिया के दोहरे मापदंड को उजागर किया है। अंग्रेजी अखबारों ने इस हादसे को प्रमुखता से कवर किया और राज्य सरकार की ओर से की गई कार्रवाई का उल्लेख किया। लेकिन हिंदी मीडिया में इस खबर को उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया। क्या यह सिर्फ प्रसार क्षेत्र और भाषा का मामला है या फिर यह एक सुनियोजित तरीके से खबरों को दबाने की रणनीति का हिस्सा है?

राज्य सरकार ने हादसे के बाद कार्रवाई की, लेकिन मीडिया की रिपोर्टिंग ने इसे सिरे से नजरअंदाज किया। सरकारी अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई, पुलिस प्रमुख को निलंबित किया गया, और मुख्यमंत्री ने न्यायिक जांच के आदेश दिए। लेकिन क्या मीडिया ने इसे ठीक से कवर किया? नहीं। कहीं न कहीं यह छिपा हुआ संदेश जाता है कि मीडिया सत्ता से दबाव की स्थिति में है और अपनी भूमिका से भटक चुका है।

* सिंदीकी राजनीति:

अमर उजाला की रिपोर्टिंग पर भी सवाल उठते हैं, जब उसने प्रधानमंत्री के ‘सिंदूर का पौधा लगाने’ की खबर को प्रमुखता दी। क्या यह पत्रकारिता की स्वतंत्रता है या फिर सत्ता के प्रभाव में आकर अखबारों ने उसे ‘राजनीतिक प्रचार’ बना दिया? एक पौधा लगाने की तस्वीर को ‘राजनीतिक संदेश’ बनाने की कोशिश की गई, जब कि यह एक साधारण क्रिया थी, जिसमें न तो कोई ऐतिहासिक महत्व था और न ही किसी समाजिक संदेश का संकेत। क्या इस प्रकार की खबरों को प्रमुखता देना मीडिया की नैतिकता से मेल खाता है?

* समीक्षा की आवश्यकता:

आज जब हम मीडिया की भूमिका की समीक्षा करते हैं, तो यह साफ दिखाई देता है कि कई मामलों में निष्पक्षता की कमी है। चाहे वह सरकारी प्रचार हो या फिर राजनीतिक दलों की खबरों को गढ़ने की कोशिश, मीडिया की भूमिका को संदेह की नजर से देखा जाने लगा है। खबरों का चयन और उसके शीर्षक को इस प्रकार से प्रस्तुत करना कि वह राजनीतिक लाभ के लिए उपयुक्त हो, क्या यह पत्रकारिता के मूल्यों के खिलाफ नहीं है?

* समाज में विश्वास का संकट:

मीडिया के इस प्रकार के एकतरफा दृष्टिकोण से समाज में विश्वास का संकट उत्पन्न हो रहा है। जब जनता को यह महसूस होने लगे कि मीडिया सत्ता के दबाव में अपनी रिपोर्टिंग कर रहा है, तो यह पत्रकारिता के लिए एक बहुत ही खतरनाक स्थिति है। यह किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए बेहद घातक हो सकता है, जहाँ मीडिया का उद्देश्य सत्ता के नियंत्रण में न होकर, जनता की सच्चाई तक पहुँचाना होना चाहिए।

* आवश्यकता—निष्पक्ष पत्रकारिता की:

भारत के मीडिया को इस स्थिति से बाहर निकलने की आवश्यकता है। यह जरूरी है कि मीडिया अपने कार्यों को पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से अंजाम दे, और न केवल सत्ताधारी दल के विचारों को एकतरफा तरीके से प्रस्तुत करें। पत्रकारिता का असली उद्देश्य समाज को सच और तथ्यों से अवगत कराना होता है, न कि किसी राजनीतिक दल या सरकार के प्रचार का हिस्सा बनना।

पत्रकारिता की यह स्वतंत्रता और जिम्मेदारी हमें बचानी होगी, ताकि लोकतंत्र की मजबूती में मीडिया का सही योगदान हो सके। अगर मीडिया खुद को सत्ता के प्रभाव से मुक्त नहीं कर सकता, तो जनता का विश्वास खो जाएगा, और इसके दूरगामी परिणाम समाज और देश के लिए अच्छे नहीं होंगे।

मीडिया को यह समझना होगा कि खबरें सिर्फ सूचनाएँ नहीं होतीं, बल्कि वे समाज में प्रभाव डालने का एक ज़रिया होती हैं। अगर हम पत्रकारिता के उच्च मानकों का पालन करना चाहते हैं, तो हमें अपनी भूमिका में पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रखनी होगी। अब समय आ गया है जब मीडिया को आत्मनिरीक्षण करना होगा और यह सवाल उठाना होगा कि क्या वह अपनी स्वतंत्रता और जिम्मेदारी निभा रहा है, या फिर वह राजनीतिक प्रभाव में आकर अपने कर्तव्यों से विमुख हो चुका है?

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