
“विज्ञान बनाम मिथक : बच्चों का भविष्य और शिक्षा की दिशा”
हाल ही में हिमाचल प्रदेश में आयोजित एक सरकारी विद्यालय कार्यक्रम में केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने बच्चों से पूछा कि अंतरिक्ष में जाने वाला पहला व्यक्ति कौन था। बच्चों ने वैज्ञानिक उत्तर दिया—“नील आर्मस्ट्रांग।” लेकिन मंत्री महोदय ने इसे नकारते हुए कहा—“पहले अंतरिक्ष यात्री तो हनुमान जी थे।” यह कथन सतही तौर पर मज़ाक या भावनात्मक अपील जैसा लगे, परंतु इसके पीछे छिपी प्रवृत्ति गहरी चिंता का विषय है।
1. शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51-ए(एच) हर नागरिक का यह मूल कर्तव्य निर्धारित करता है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और परीक्षण-भावना का विकास करे। इसका आशय है—
* सोच में तर्कशीलता हो,
* निर्णय प्रमाण और अनुभव पर आधारित हो,
* और ज्ञान निरंतर जाँच व सुधार के लिए खुला रहे।
बच्चों के सामने धार्मिक मिथकों को विज्ञान का पर्याय बताना, दरअसल इस संवैधानिक कर्तव्य को चुनौती देना है। शिक्षा का मक़सद जिज्ञासा और आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करना है, न कि अंधविश्वास को थोपना।
2. मनोवैज्ञानिक प्रभाव
शैक्षिक मनोविज्ञान बताता है कि बचपन में जो अवधारणाएँ गहराई से रोप दी जाती हैं, वे दीर्घकालीन सोच को प्रभावित करती हैं। यदि बच्चों को यह सिखाया जाए कि “तथ्य” और “आस्था” में कोई भेद नहीं है, तो उनकी तर्क-क्षमता और वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रवृत्ति कमजोर हो जाएगी।
* प्राइवेट स्कूलों और सम्पन्न परिवारों के बच्चों के पास वैकल्पिक स्रोत होते हैं—इंटरनेट, अतिरिक्त किताबें, कोचिंग।
* लेकिन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले, गरीब और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे, यदि गलत दिशा में ढकेल दिए जाएँ, तो उनके पास सुधार का अवसर सीमित रह जाता है।
यह असमानता भविष्य में ज्ञान का वर्ग विभाजन पैदा कर सकती है—जहां अमीर बच्चों को विज्ञान मिलेगा और गरीब बच्चों को अंधविश्वास।
3. सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
भारतीय समाज विविधता से भरा है। यहाँ शिक्षा केवल ज्ञान का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक गतिशीलता का साधन भी है। यदि शिक्षा में मिथकीय आख्यानों को वैज्ञानिक सत्य की तरह पढ़ाया जाएगा, तो यह लोकतांत्रिक समानता को भी चोट पहुँचाएगा।
राजनीतिक दृष्टि से यह प्रवृत्ति खतरनाक है। शिक्षा को “विचारधारात्मक प्रयोगशाला” बना देना, बच्चों को एक खास विचारधारा के साँचे में ढालने जैसा है। इससे लोकतांत्रिक समाज में स्वतंत्र चिंतन और बहुलता कमजोर पड़ती है।
4. सनातन धर्म और वैदिक ज्ञान का सन्दर्भ
यहाँ यह स्पष्ट करना भी ज़रूरी है कि वैदिक ज्ञान और मिथकीय कल्पनाएँ अलग-अलग चीज़ें हैं।
* ऋग्वेद, उपनिषद और वेदांग हमें प्रश्न पूछने, जिज्ञासा रखने और ज्ञान के सत्यापन की परंपरा सिखाते हैं।
* नासदीय सूक्त में ऋषि पूछते हैं—“इस सृष्टि की उत्पत्ति किससे हुई, यह कौन जानता है?” यह वैज्ञानिक दृष्टि का ही शाश्वत उदाहरण है—प्रश्न करो, जाँचो, और उत्तर खोजो।
* वैदिक युग में गणित, खगोल, औषधि और भाषा-विज्ञान पर गंभीर अध्ययन हुआ। आर्यभट, भास्कराचार्य और चरक-सुश्रुत जैसे आचार्य इसी ज्ञान-परंपरा के उत्तराधिकारी थे।
इसलिए, यदि वास्तव में बच्चों को “सनातन ज्ञान” से जोड़ना है, तो उन्हें प्रश्न करने, जाँचने और खोजने की प्रवृत्ति सिखानी होगी, न कि धार्मिक प्रतीकों को विज्ञान का पहला उदाहरण बताना।
भारत की अंतरिक्ष उपलब्धियाँ—चंद्रयान, मंगलयान, गगनयान—किसी एक सरकार की नहीं, बल्कि दशकों की वैज्ञानिक मेहनत का परिणाम हैं। इन्हें मिथकों के सहारे समझाना न सिर्फ बच्चों के साथ अन्याय है, बल्कि उन वैज्ञानिकों के साथ भी, जिन्होंने सीमित संसाधनों के बावजूद भारत को अंतरिक्ष शक्ति बनाया।
आज ज़रूरत है कि—
* बच्चे तथ्यों और प्रयोगों पर आधारित शिक्षा पाएं,
* मिथक और आस्था को साहित्य व संस्कृति की श्रेणी में पढ़ें,
* और विज्ञान को विज्ञान की कसौटी पर।
यही दृष्टिकोण न केवल संविधान के अनुरूप है, बल्कि सनातन वैदिक परंपरा की वास्तविक भावना के भी अनुकूल है। क्योंकि सनातन धर्म का मूल संदेश है — सत्यमेव जयते — सत्य ही अंततः विजय पाता है।
👉 यह आलेख बच्चों के भविष्य, शिक्षा की दिशा और समाज की वैज्ञानिक चेतना को लेकर एक गंभीर चेतावनी है। यदि हम आज इसे न समझें, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल धार्मिक कथाओं तक सिमटकर रह जाएंगी, और भारत का अंतरिक्ष—जहाँ पहुंचने में हमें सदियों का संघर्ष लगा है—सिर्फ “मिथकीय यात्राओं” में बदलकर रह जाएगा।