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भारत मे यात्रा सुरक्षा और सरकारी लापरवाही का दस्तावेज


हादसों का गणराज्य: भारत में यात्रा सुरक्षा और सरकारी लापरवाही का दस्तावेज़

पिछले कुछ वर्षों में भारत एक ऐसी जगह बनता जा रहा है जहां हर यात्रा — चाहे वह आसमान में हो, सड़कों पर या पहाड़ों में — जीवन और मृत्यु का खेल बन चुकी है। हाल ही में 12 जून को अहमदाबाद में हुए भीषण विमान हादसे और उत्तराखंड में लगातार हो रही हेलीकॉप्टर दुर्घटनाओं ने यह उजागर कर दिया है कि भारत में यात्रा सुरक्षा न केवल सरकार की प्राथमिकताओं से बाहर है, बल्कि एक ढांचागत विफलता का रूप ले चुकी है।

अहमदाबाद विमान हादसा: दुर्घटना या नियोजित लापरवाही?

12 जून की सुबह, एयर इंडिया एक्सप्रेस की उड़ान AX-221 जैसे ही अहमदाबाद एयरपोर्ट से रवाना हुई, महज़ कुछ सौ फीट की ऊंचाई पर दोनों इंजन अचानक बंद हो गए। विमान हवा में नियंत्रण खो बैठा और बी.जे. मेडिकल कॉलेज के छात्रावास पर गिर पड़ा, जिससे आग की लपटें पूरे क्षेत्र में फैल गईं।
आधिकारिक रिपोर्टों के अनुसार 241 यात्रियों में से केवल एक बचा, पर चश्मदीदों और स्थानीय प्रशासन के अनुसार मृतकों की संख्या 279 से अधिक हो सकती है, जिनमें आसपास के लोग और छात्र शामिल हैं।

सरकार ने एक जांच समिति तो गठित कर दी, लेकिन भारतीय इतिहास में गठित अनेक समितियों की तरह यह भी शायद केवल एक प्रतीकात्मक कवायद बनकर रह जाए। ब्लैक बॉक्स मिलने के बावजूद, जनता का भरोसा इस बात पर नहीं है कि इससे कोई भविष्यसूचक नीति निकलेगी।

उत्तराखंड में हेलीकॉप्टर हादसे: नियमित असुरक्षा की मिसाल

इस हादसे के ठीक एक दिन बाद, 15 जून को उत्तराखंड में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हुआ, जिसमें पायलट सहित सभी 7 लोगों की मृत्यु हो गई। 2022 के बाद से यह वहां का पांचवां बड़ा हेलीकॉप्टर हादसा है।
चारधाम यात्रा मार्ग, जो पहले से ही मौसम और भू-संरचना के लिहाज से संवेदनशील है, वहां उड़ान सेवाओं का संचालन बिना मानक उड़ान नियमों के कठोर अनुपालन के किया जा रहा है।
सरकार की ओर से हर बार एक जैसे बयान और मुआवजे की घोषणाएं होती हैं, परंतु संरचनात्मक सुधार और पूर्वानुमान आधारित नीति निर्धारण कहीं नज़र नहीं आता।

रेल और सड़क: जीवन की कोई गारंटी नहीं

देश में रेल और सड़क यात्रा भी अब जोखिम से भरी है। 9 जून को मुंबई लोकल ट्रेन में अत्यधिक भीड़ के कारण पांच लोग ट्रेन से गिरकर मारे गए। हर दिन देशभर में सैकड़ों लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं, जिनमें पैदल चलने वाले नागरिकों का अनुपात बढ़ता जा रहा है। सड़कों की बेतरतीब प्लानिंग, नियमों की अवहेलना, और यातायात पुलिस का असंतुलन एक नियंत्रणहीन आपदा को जन्म दे रहे हैं।

क्या सरकार जवाबदेह है?

इस पूरी श्रृंखला का सबसे खतरनाक पहलू है — सरकार की प्रतिक्रिया। अहमदाबाद हादसे के अगले ही दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घटना स्थल पर अलग-अलग कोणों से खींची गई तस्वीरें मीडिया में छाई रहीं, जिससे एक असंवेदनशील राजनीतिक प्रचार का संदेश गया। गृहमंत्री अमित शाह का यह बयान कि “दुर्घटनाएं रोकी नहीं जा सकतीं” — नीतिगत जिम्मेदारी से पलायन का एक भयावह संकेत था।

यदि दुर्घटनाओं को रोका नहीं जा सकता, तो फिर DGCA, AAI, रेल सुरक्षा आयोग, और यातायात मंत्रालयों का औचित्य क्या रह जाता है? यह सवाल अब ज़रूरी हो गया है कि क्या भारत में शासन तंत्र केवल दिखावे और ठेकेदारी तक सीमित रह गया है?

निजीकरण: सुरक्षा के ऊपर लाभ का गणित

भारत के लगभग सभी बड़े हवाई अड्डे अब अडानी समूह को सौंपे जा चुके हैं, जिसमें अहमदाबाद एयरपोर्ट भी शामिल है। यह वही एयरपोर्ट है जहां से उड़ने वाले विमान की सर्विसिंग, फ्यूल सप्लाई और ऑपरेशन के प्रश्न अब सरकारी नहीं, निजी जवाबदेही के दायरे में आते हैं — लेकिन न तो कंपनी पर कोई सवाल उठता है, न ही सरकार पर।
देश में रेल, कोयला, तेल, जंगल, और यहां तक कि दिल्ली चिड़ियाघर तक के निजीकरण की कोशिशें जारी हैं। तो फिर क्या सरकार महज़ एक दलाल बन चुकी है — जो जनसंपत्ति को औने-पौने में कॉर्पोरेट घरानों के हवाले कर रही है?

मीडिया और मिथक: धर्म के नाम पर हादसे का महिमामंडन

अहमदाबाद हादसे में भगवत गीता की एक प्रति के सुरक्षित बचने को लेकर मीडिया ने जो ‘चमत्कारी कवरेज’ की, वह त्रासदी का सरलीकरण और राजनीतिक-सांस्कृतिक एजेंडे का प्रतिबिंब बन गया।
आज तक चैनल की पत्रकार श्वेता सिंह द्वारा गीता को प्रणाम करने की रिपोर्ट, और दुर्घटना की “ईश्वरीय मंशा” बताने की कोशिशें एक गंभीर दुर्घटना को धार्मिक भावनाओं के पर्दे में ढंकने की कोशिश थी।

अंतरराष्ट्रीय फजीहत और झूठ का प्रचार:

बाबा रामदेव द्वारा तुर्की की एक कंपनी पर रखरखाव की लापरवाही का आरोप लगाना बिना किसी आधार के था, और जब तुर्की कंपनी ने सफाई दी कि उनका एयर इंडिया से कोई संबंध नहीं, तब तक देश की अंतरराष्ट्रीय साख को ठेस पहुंच चुकी थी।
सरकार के समर्थकों ने सोशल मीडिया पर पीड़ितों को ‘शो ऑफ’ करने वाला करार दिया और वीडियो बनाने वाले छात्र को पुलिस उठा ले गई — यह लोकतंत्र की उस बुनियाद पर चोट है जो सूचना और पारदर्शिता पर आधारित है।

हादसे अब आकस्मिक नहीं, शासन की संरचनात्मक विफलता हैं:

यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत में यात्रा सुरक्षा केवल तकनीकी मसला नहीं है — यह नीतिगत प्राथमिकताओं, निजीकरण की अंधी दौड़, और शासन में जवाबदेही के पतन का परिणाम है।
इस हादसे में गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी की भी मृत्यु हुई, पर सवाल यह है कि क्या यह सरकार को आत्मचिंतन के लिए विवश करेगा?

देश में अब जनता को यह पूछना होगा —

“क्या हर अगली यात्रा एक संभावित मौत का सफर है?” और “क्या हम एक ऐसे भारत को स्वीकार करने को तैयार हैं, जहां शासन नहीं, सिर्फ़ प्रचार और ठेकेदारी राज करती है?”

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