दर्दनाक घटना मासूम की गई जान….

क्रूर नियति और निर्दयी व्यवस्था का शिकार,अरबाज की मौत सिर्फ एक हादसा नहीं, व्यवस्था की सबसे बड़ी नाकामी है

अनु रंगा 9460310002

कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं जो भीतर तक झकझोर देती हैं। वे किसी फिल्म की पटकथा नहीं होतीं, बल्कि हाड़-मांस के इंसानों की सच्ची पीड़ा होती हैं, जिन्हें देखकर आंखें नम हो जाती हैं और गुस्सा दिल की गहराइयों से उठता है। जैसलमेर के पूनमनगर गांव का 7 वर्षीय मासूम अरबाज खान भी एक ऐसी ही कहानी का नायक था लेकिन दुर्भाग्य से यह कहानी अधूरी रह गई, क्योंकि नियति और व्यवस्था दोनों ने ही उसके साथ क्रूर मज़ाक किया।

इस मासूम ने बहुत छोटी उम्र में ही उस दर्द को जिया था, जिसे बड़े भी जीवनभर नहीं भुला पाते। कोरोना काल की वह भयावह लहर जब हर सांस अमूल्य हो गई थी, तब अरबाज ने अपनी मासूम आंखों से अपने पिता को व्हीलचेयर पर अंतिम सांसें लेते देखा। एक छोटा सा बच्चा, जो यह भी नहीं समझता कि ‘कोरोना’ क्या है, अपने पिता की उखड़ती साँसों को गिनते हुए बस इतना जान पाया कि उसके जीवन का सबसे बड़ा सहारा अब लौटकर नहीं आएगा।

पर नियति यहीं नहीं रुकी।

उसने जैसे तय कर लिया था कि इस मासूम को और भी परीक्षा देनी है और इस बार उसकी परीक्षा ली सरकारी लापरवाही की उस दीवार ने, जो एक साल से टूटने की स्थिति में थी, लेकिन किसी ने उसे सुधारने की जहमत नहीं उठाई। स्कूल का वही गेट, जहां से निकलकर वह बच्चा रोज़ घर जाता था, इस बार उसकी मौत का रास्ता बन गया।

अरबाज की कहानी हमें यह भी दिखाती है कि किस तरह एक गरीब, बेसहारा परिवार का बच्चा इस बेहरहम सिस्टम की सबसे सस्ती कीमत बन जाता है। ना सुरक्षा, ना देखरेख, ना जवाबदेही बस एक हादसा, कुछ अफसरों की लीपापोती, मीडिया में दो दिन की हेडलाइन, और फिर सबकुछ भुला दिया जाता है।

क्या इस बच्चे की मौत को सिर्फ एक ‘दुर्घटना’ कह कर टाल देना इंसाफ है? क्या इस बच्चे की जगह अगर किसी प्रभावशाली व्यक्ति का बेटा होता तो भी यही चुप्पी होती? अरबाज को न पिता की छांव मिली, न व्यवस्था का संरक्षण और अंत में उसे एक पत्थर की दरारों में दबा दिया गया, जो महीनों से किसी बड़ी अनहोनी की प्रतीक्षा कर रही थी।

अरबाज की मौत का दर्द केवल उसका परिवार नहीं झेलेगा, यह इस समाज पर एक बदनुमा दाग बनकर रह जाएगा। ये एक ऐसे बच्चे की अधूरी कहानी है, जो सिर्फ पढ़ने गया था, सपने देखने गया था, लेकिन लौटकर आया तो एक सफेद कफ़न में लिपटा हुआ।

इस क्रूर नियति के साथ-साथ जो सबसे बड़ा अपराध है, वो है इस शासन और व्यवस्था की चुप्पी। अरबाज के साथ इंसाफ तभी होगा जब जिम्मेदारों को सिर्फ नोटिस या निलंबन नहीं, बल्कि दंड दिया जाएगा। जब हर स्कूल की दीवार को उस नजर से देखा जाएगा, जिस नजर से एक मां अपने बच्चे को देखती है। और जब कोई भी बच्चा, चाहे वह किसी भी वर्ग या समुदाय से हो, स्कूल से लौटे तो किताबों के साथ, ताबूत में लिपटा नहीं।

अरबाज अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन उसकी कहानी हर उस व्यक्ति को सवालों के कठघरे में खड़ा करती है जो इस व्यवस्था का हिस्सा है। क्या हम फिर किसी अरबाज को मरने देंगे? या अब हम सच में जागेंगे?

इसका उत्तर हम सबको मिलकर तय करना है और तुरंत करना है।

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